(Murli Date: 11-03-23)
समय इस युग का सबसे कम है, लेकिन महत्व सबसे ज्यादा है…
- संगम मतलब मिलना, हम आत्मा बच्चों का मिलन अपने परमात्मा बाप से इसी युग में होता है, किसी और युग में हो ना सके। क्योंकि सतयुग में तो हैं ही प्योर और संपूर्ण.. दुख तो है नहीं तो थोड़े बाप को याद करेंगे। बाप का प्यार तो यहां ही मिलता है क्योंकि बाप बच्चों को दुखी नहीं देख सकता। जब दुख होगा तभी सुख को सही से अनुभव कर पाएंगे। दुख के बिना तो सुख का मूल ही नहीं है।
- इसी युग में आत्मा के पुराने संस्कार खतम हो, सतयुगी संस्कार में कन्वर्ट होते हैं। आत्मा को अपने अपने असली वर्च्यूज का ज्ञान मिलता है। रावण के संस्कारों को आग यहीं लगती है। यहां मिले बाप के ज्ञान से ही हम स्वदर्शन चकरधारी बन कर खुद के पाप कर्मों के हिसाब को जान कर खतम करते हैं।
- सारे हिसाब यहां ही चुक्तु हो सकते हैं क्योंकि सतयुग है पावन, त्रेता में भी हम पूज्य होते हैं, द्वापर में कला कम होनी ज्यादा शुरू होती है क्योंकि आत्मा थकते और भूलती जाती है अपने असली संस्कारों को शरीर बदलते बदलते, फिर कलयुग में तो भूत ही गिर पढ़ते हैं, अब क्योंकि इसके बाद वापिस से सतयुग स्थापन होना है तो वहां ऐसे तो जा नहीं सकते… इसलिए बीच का है संगमयुग, जहां ज्ञान सुनके आत्मा वापिस से अपने असली रूप को समझती है और सतयुग में अपना ऊंचा पार्ट बजाती है।
- सतयुग में एक ही आदि सनातन देवी देवता धर्म था तो कुछ भी डिफरेंसेज नहीं थे, अनेक धर्म जब निकल कर आते हैं तभी ये लड़ाईयां शुरू होती हैं। तो ये सब धर्म जो मनुष्य ने बना रखें हैं, ये सब भी यहीं ज्ञान के द्वारा ही खतम होने हैं तांकी वापिस से आत्मा के असली धर्म की स्थापना हो सके।