एक कहानी है स्वराज्य की-
मैं वहीं खड़ा था। मुझको यकीन था कि मैं वही हूँ। किसीने सामना करने की कोशिश की। मैं परंतु स्वयं को पहचान चुका था। कोई था जो मुझको पहचानने नहीं दे रहा था। पर मेरे उस समय में होने की ज़िक्र मन में उड़ान भर रहा था। कि अब मैं वो हो ही जाऊं। जो मैं होने को आया हूँ। वो भाती थी स्वराज्य की। कितनी मिन्नतें की थी, बरसों से अँखियाँ बिछाये राहों में कोई था जो मेरा इंतज़ार कर रहा था। और मैं अभी उस समय के कांटे में खड़ा था जो अंत समय होने की चेष्टा मुझसे करवा रहा था। मैं उस समय के होने की बरसों से दबी हुई अभिलाषा कर रहा था जो अब मेरे जैसा होने वाला था। मैं आने वाला समय हो ही रहा था। कोई तो ताकत थी जो मुझको उस समय में होने को खींच रही थी। मैं आतुर था कि कब मैं उस क्षण सबकुछ हो जाऊं। बड़ी ही सूक्ष्म पहेली थी। अंदर घोर सोझरा सा मैं दिखाई दे रहा था, की तभी एक काली परछाई सोझरे को बार बार मुंझा रही थी। मैं विचलित ये खेल अनगिनत बार देख चुका था। पर फिर भी मुझे विश्वास अपने वजूद स्व की वास्तविकता में होने को अटल थी जो मैं समय वो उसी संकल्प से तैयार कर रहा था। विचलित अवस्था में कुछ तो खेल चल रहा था। अंदर कुछ और बाहर कुछ हो रहा था। मैं समझा कि अब अंदर मैं यकीनन वही हो रहा था जो भाती रची हुई थी विधान की। और बाहर प्रतिबिंब से छवि कुछ कुछ साकार होने को आई थी। क्योंकि लगता है मैं अब वही हो रहा था जो मैं होने को आया था। अब स्व की चेतना जागृत सी नज़र आई थी। कुछ तो था जो रच रहा था। प्रतिपल बखान जिसका होने वाला था। कुछ समीप था कुछ अभी भी दूर लग रहा था। जैसे ही मैं आगे समय को लाता, धक्का कुछ दूसरा लग जाता। विश्वास पर अटल था। विधि से विधान जब सब मन में था। अब तो सूक्षमता बढ़ती सी गयी थी। अटल निश्चय जो हो चला था। मैं वही पहेली था जो खुद को ही सुलझा रहा था। मैं सृजन जब स्व की वास्तविकता का कर रहा था। मैं राही अब अलग मंज़िल का मालूम नज़र आ रहा था। अब समय पुकार कर रहा था कि तुम मुझको अब हर घड़ी में ले आओ। अब तुम अपने को पा ही लो। अब तो समय को लांघ जाओ।बात कही की खुदा की वास्तविकता किसमें कितनी है। किसमें उसको समा लेने की चेष्टा अधिक है। कौन हैं जिनकी छवि खुदाई होकर खुदा से मिलने लगी हैं। हैं कोई ऐसे, जो खुदा सम बनने लगे हैं?माटी से माटी मिले खोकर सभी निशान, किसमें कितना रब है बसता, कैसे हो पहचान।।
